ऐसे रहो, जैसे तुम अकेले हो कहीं भी रहो—ऐसे रहो, जैसे तुम अकेले हो। न कोई संगी है, न कोई साथी। भीड़ में भी रहो, तो अकेले रहो। परिवार में भी रहो, तो अकेले रहो। इस बात को जानते ही रहो भीतर, एक क्षण को यह सूत्र हाथ से मत जाने देना। एक क्षण को भी यह भांति पैदा मत होने देना कि तुम अकेले नहीं हो, कि कोई तुम्हारे साथ है।
यहां न कोई साथ है; न कोई साथ हो सकता है। यहां सब अकेले हैं। अकेलापन आत्यंतिक है। इसे बदला नहीं जा सकता। थोडी—बहुत देर को भुलाया जा सकता है, बदला नहीं जा सकता। और सब भुलावे एक तरह के मादक द्रव्य हैं। एक प्रकार के नशे हैं। कैसे तुम भुलाते हो, इससे फर्क नहीं पड़ता। कोई शराब पीकर भुलाता है। कोई धन की दौड़ में पड़कर भुलाता है। कोई पद के लिए दीवाना होकर भुलाता है। कैसे तुम भुलाते हो, इससे फर्क नहीं पड़ता। लेकिन थोड़ी देर को भुला सकते हो। बस। और जब भी नशा उतरेगा, अचानक पाओगे अकेले हो।
संन्यासी वही है, जो जानता है कि मैं अकेला हूं और भुलाता नहीं अपने अकेलेपन को। भुलाना तो दूर, अपने अकेलेपन में रस लेता है। और प्रतीक्षा करता है कि कब मौका मिल जाए कि थोड़ी देर अपने अकेलेपन का स्वाद लूं। थोड़ी देर आंख बंद करके अपने में डूब जाऊं, अकेला रह जाऊं। वही मेरी नियति है। वही मेरा स्वभाव है। उसी स्वभाव से मुझे पहचान बनानी है।
दूसरों से पहचान बनाने से कुछ भी न होगा; अपने से पहचान बनानी है। दूसरों को जानने से क्या होगा? अपने को ही न जाना और सबको जान लिया, इस जानने का कोई मूल्य नहीं है। मूल में तो अज्ञान रह गया....
( एस धम्मो सनंतनो )
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